चौहान राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची:

चौहान वंश राजपूतों के प्रसिद्ध वशों में से एक है। चौहान वंश का संस्थापक वासुदेव चौहान था। 'चव्हाण' या 'चौहान' उत्तर भारत की आर्य जाति का एक वंश है। चौहान गोत्र राजपूतों में आता है। कई विद्वानों का कहना है कि चौहान सांभर झील, पुष्कर, आमेर और वर्तमान जयपुर (राजस्थान) में होते थे, जो अब सारे उत्तर भारत में फैले चुके हैं। इसके अतिरिक्त मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) एवं अलवर ज़िले में भी इनकी अच्छी-ख़ासी संख्या है।

चौहान वंश के प्रसिद्ध शासक:

चौहान वंश की अनेक शाखाओं में 'शाकंभरी चौहान' (सांभर-अजमेर के आस-पास का क्षेत्र) की स्थापना लगभग 7वीं शताब्दी में वासुदेव ने की। वासुदेव के बाद पूर्णतल्ल, जयराज, विग्रहराज प्रथम, चन्द्रराज, गोपराज जैसे अनेक सामंतों ने शासन किया। शासक अजयदेव ने ‘अजमेर’ नगर की स्थापना की और साथ ही यहाँ पर सुन्दर महल एवं मन्दिर का निर्माण करवाया। 'चौहान वंश' के मुख्य शासक इस प्रकार थे-

चौहान राजवंश के शासकों की सूची:

  • वासुदेव चौहान  (551 ई. के लगभग)
  • विग्रहराज द्वितीय (956 ई. के लगभग)
  • अजयदेव चौहान (1113 ई. के लगभग)
  • अर्णोराज (लगभग 1133 से 1153 ई.)
  • विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव (लगभग 1153 से 1163 ई.)
  • पृथ्वीराज तृतीय (1178-1192 ई.)

1. वासुदेव चौहान: चौहानों का मूल स्थान जांगल देश में सांभर के आसपास सपादलक्ष को माना जाता हैं इनकी प्रांरभिक राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) थी। बिजोलिया शिलालेख के अनुसार सपादलक्ष के चौहान वंश का संस्थापक वासुदेव चौहान नामक व्यक्ति था, जिसने 551 ई के आसपास इस वंश का प्रारंभ किया। बिजोलिया शिलालेख के अनुसार सांभर झील का निर्माण भी इसी ने करवाया था। इसी के वंशज अजपाल ने 7वीं सांभर कस्बा बसाया तथा अजयमेरू दुर्ग की स्थापना की थी।

2. विग्रहराज द्वितीय: चौहान वंश के प्रारंभिक शासकों में सबसे प्रतापी राजा सिंहराज का पुत्र विग्रहराज-द्वितीय हुआ, जो लगभग 956 ई के आसपास सपालक्ष का शासक बना। इन्होने अन्हिलपाटन के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम को हराकर कर देने को विवश किया तथा भड़ौच में अपनी कुलदेवी आशापुरा माता का मंदिर बनवाया। विग्रहराज के काल का विस्तृत वर्णन 973 ई. के हर्षनाथ के अभिलेख से प्राप्त होता है।

3. अजयराज: चौहान वंश का दूसरा प्रसिद्ध शासक अजयराज हुआ, जिसने (पृथ्वीराज विजय के अनुसार) 1113 ई. के लगभग अजयमेरू (अजमेर) बसाकर उसे अपने राज्य की राजधानी बनाया। उन्होंने अन्हिलापाटन के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम को हराया। उन्होनें श्री अजयदेव नाम से चादी के सिक्के चलाये। उनकी रानी सोमलेखा ने भी उने नाम के सिक्के जारी किये।

4. अर्णोराज: अजयराज के बाद अर्णोंराज ने 1133 ई. के लगभग अजमेर का शासन संभाला। अर्णोराज ने तुर्क आक्रमणकारियों को बुरी तरह हराकर अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाया। चालुक्य शासक कुमारपाल ने आबू के निकट युद्ध में इसे हराया। इस युद्ध का वर्णन प्रबन्ध कोश में मिलता है। अर्णोराज स्वयं शैव होते हुए भी अन्य धर्मो के प्रति सहिष्णु था। उनके पुष्कर में वराह-मंदिर का निर्माण करवाया।

5. विग्रहराज चतुर्थ: विग्रहराज-चतुर्थ (बीसलदेव) 1153 ई. में लगभग अजमेर की गद्दी पर आसीन हुए। इन्होंने अपने राज्य की सीमा का अत्यधिक विस्थार किया। उन्होंने गजनी के शासक अमीर खुशरूशाह (हम्मीर) को हराया तथा दिल्ली के तोमर शासक को पराजित किया एवं दिल्ली को अपने राज्य में मिलाया। एक अच्छा योद्धा एवं सेनानायक शासक होते हुए व विद्वानों के आश्रयदाता भी थे। उनके दरबार मे सोमदेव जैसे प्रकाण्ड विद्वान कवि थे। जिसने ‘ललित विग्रहराज‘ नाटक को रचना की। विग्रहराज विद्वानों के आश्रयदाता होने के कारण ‘कवि बान्धव‘ के नाम से जाने जाते थे। स्वयं विग्रहराज ने ‘हरिकेलि‘ नाटक लिखा। इनके काल को चोहन शासन का ‘स्वर्णयुग‘ भी कहा जाता है।

6. पृथ्वीराज-तृतीय: चौहान वंश के अंतिम प्रतापी सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय का जन्म 1166 ई. (वि.सं. 1223) में अजमेर के चौहान शासन सोमेश्वर की रानी कर्पूरीदेवी (दिल्ली के शासक अनंगपाल तोमर की पुत्री ) को कोख से अन्हिलपाटन (गुजरात) में हुआ। अपने पिता का असमय देहावसान हो जाने के कारण मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में पृथ्वीराज तृतीय अजमेर की गद्दी के स्वामी बने। परन्तु बहुत कम समय में ही पृथ्वीराज-तुतीय ने अपनी योग्यता एवं वीरता से समस्त शासन प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया। उसके बाद उसने अपने चारों ओर के शत्रुओं का एक-एक कर शनै-शनै खात्मा किया एव दलपंगुल (विश्व विजेता) की उपाधि धारण की। वीर सेनानायक सम्राट पृथ्वीराज किन्ही कारणों से मुस्लिम आक्रांता मुहम्मद गौरी से तराइन के द्वितीय युद्ध में हार गया और देश में मुस्लिम शासन की नींव पड़ गई।

पृथ्वीराज-तृतीय के प्रमुख सैनिक अभियान व विजयें:

  1. नागार्जुन एवं भण्डानकों का दमन: पृथ्वीराज के राजकाल संभालने के कुछ समय बाद उसके चचेरे भाई नागार्जुन ने विद्रोह कर दिया। वह अजमेर का शासन प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था अतः पृथ्वीराज ने सर्वप्रथम अपने मंत्री कैमास की सहायता से सैन्य बल के साथ उसे पराजित कर गडापुरा (गुड़गाॅव) एवं आसपास का क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिये। इसके बाद 1182 ई. में पृथ्वीराज ने भरतपुर-मथुरा क्षेत्र में भण्डानकों के विद्रोहों का अंत किया।
  2. महोबा के चंदेलों पर विजय: पृथ्वीराज ने 1182 ई. मे ही महोबा के चंदेल शासक परमाल (परमार्दी) देव को हराकर उसे संधि के लिए विवश किया एवं उसके कई गांव अपने अधिकार में ले लिए।
  3. चालुक्यों पर विजय: सन् 1184 के लगभग गुजरात के चालुक्य शासक भीमदेव-द्वितीय के प्रधानमंत्री जगदेश प्रतिहार एवं पृथ्वीराज की सेना के मध्य नागौर का युद्ध हआ जिसके बाद दोनों में संधि हो गई एवं चौहानों की चालुक्यों से लम्बी शत्रुता का अंत हुआ।
  4. कन्नौज से संबंध: पृथ्वीराज के समय कत्रौज पर गहड़वाल शासक जयचन्द का शासन था। जयचंद एवं पृथ्वीराज दोनों की राज्य विस्तार की महात्वाकांक्षाओं ने उनमें आपसी वैमनस्य उत्पत्र कर दिया था। उसके बाद उसकी पुत्री संयोंगिता को पृथ्वीराज द्वारा स्वयंवर से उठा ले जाने के कारण दोनों की शत्रुता और बढ़ गई थी इसी वजह से तराइन युद्ध में जयचंद ने पृथ्वीराज की सहायता न कर मुहम्मद गौरी की सहायता की।

चौहान वंश की प्रमुख शाखाएँ:

वंश का नाम शाखा की संख्या
चौहान राजपूत 14 शाखा
राठौर राजपूत 12 शाखा
परमार या पंवार राजपूत 16 शाखा
सोलंकी राजपूत 6 शाखा
परिहार राजपूत 6 शाखा
गहलोत राजपूत 12 शाखा
चन्द्रवंशी राजपूत 4 शाखा
सेनवंशी या पाल राजपूत 1 शाखा
मकवान या झाला राजपूत 3 शाखा
भाटी या यदुवंशी राजपूत 5 शाखा
कछवाहा या कुशवाहा राजपूत 1 शाखा
तंवर या तोमर राजपूत 1 शाखा
र्भूंयार या कौशिक राजपूत 1 शाखा

राजस्थान के चौहान वंश:

राजस्थान में चौहानों के कई वंश हुए, जिन्होंने समय-समय पर यहाँ शासन किया और यहाँ की मिट्टी को गौरवांवित किया। 'चौहान' व 'गुहिल' शासक विद्वानों के प्रश्रयदाता बने रहे, जिससे जनता में शिक्षा एवं साहित्यिक प्रगति बिना किसी अवरोध के होती रही। इसी तरह निरन्तर संघर्ष के वातावरण में वास्तुशिल्प पनपता रहा। इस समूचे काल की सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने कलात्मक योजनाओं को जीवित रखा। चित्तौड़, बाड़ौली तथा आबू के मन्दिर इस कथन के प्रमाण हैं। चौहान वंश की शाखाओं में निम्न शाखाएँ मुख्य थीं-

  • सांभर के चौहान
  • रणथम्भौर के चौहान
  • जालौर के चौहान
  • चौहान वंशीय हाड़ा राजपूत

रणथम्भौर के चौहान: तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय के बाद उसके पुत्र गोविंदराज ने कुछ समय बाद रणथम्भौर में चौहान वंश का शासन किया। उनके उत्तराधिकारी वल्हण को दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश ने पराजित कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। इसी वंश के शासक वाग्भट्ट ने पुनः दुर्ग पर अधिकार कर चौहान वंश का शासन पुनः स्थापित किया। रणथम्भौर के सर्वाधिक प्रतापी एवं अंतिम शासक हम्मीर देव विद्रोही सेनिक नेता मुहम्मदशाह को शरण दे दी अतः दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया। 1301 ई. में हुए अंतिम युद्ध में हम्मीर चौहान की पराजय हुई और दुर्ग में रानियों ने जौहर किया तथा सभी राजपूत योद्धा मारे गये। 11 जुलाई, 1301 को दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्जा हो गया। इस युद्ध में अमीर खुसरो अलाउद्दीन की सेना के साथ ही था।

जालौर के चौहान: जालोर दिल्ली से गुजरात व मालवा, जाने के मार्ग पर पड़ता था। वहाॅ 13 वी सदी मे सोनगरा चौहानों का शासन था, जिसकी स्थापना नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान द्वारा की गई थी। जालौर का प्राचीन नाम जाबालीपुर था तथा यहाॅ के किले को ‘सुवर्णगिरी‘ कहते है। सन् 1305 में यहाॅ के शासक कान्हड़दे चौहान बने। अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर पर अपना अधिकार करने हेतु योजना बनाई। जालौर के मार्ग में सिवाना का दूर्ग पड़ता हैं अतः पहले अलाउद्दीन खिलजी ने 1308 ई. मे सिवाना दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीता और उसका नाम ‘खैराबाद‘ रख कमालुद्दीन गुर्ग को वहा का दुर्ग रक्षक नियुक्त कर दिया।

वीर सातल और सोम वीर गति को प्राप्त हुए सन् 1311ई. में अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर आक्रमण किया ओर कई दिनों के घेर के बाद अंतिम युद्ध मे अलाउद्दीन की विजय हुई और सभी राजपुत शहीद हुए। वीर कान्हड़देव सोनगरा और उसके पुत्र वीरमदेव युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अलाउद्दीन ने इस जीत के बाद जालौर में एक मस्जिद का निर्माण करवाया। इस युद्ध की जानकारी पद्मनाभ के ग्रन्थ कान्हड़दे तथा वीरमदेव सोनगरा की बात में मिलती है।

नाडोल के चौहान: चौहानो की इस शाखा का संस्थापक शाकम्भरी नरेश वाकपति का पुत्र लक्ष्मण चौहान था, जिसने 960 ई. के लगभग चावड़ा राजपूतों के अधिपत्य से अपने आपको स्वतंत्र कर चौहान वंश का शासन स्थापित किया। नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान ने 1177ई. के लगभग मेवाड़ शासक सामन्तंसिंह को पराजित कर मेवाड़ को अपने अधीन कर लिया था। 1205 ई. के लगभग नाडोल के चौहान जालौर की चौहान शाखा में मिल गये।

सिरोही के चौहान: सिरोही में चौहानों की देवड़ा शाखा का शासन था, जिसकी स्थापना 1311 ई. के आसपास लुम्बा द्वारा की गई थी। इनकी राजधानी चन्द्रवती थी। बाद में बार-बार मुस्लिम आक्रमणों के कारण इस वंश के सहासमल ने 1425 ई. में सिरोही नगर की स्थापना कर अपनी राजधानी बनाया। इसी के काल में महारणा कुंभा ने सिरोही को अपने अधीन कर लिया। 1823 ई. में यहा के शासक शिवसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर राज्य की सुरक्षा का जिम्मा सोपा। स्वतंत्रता के बाद सिरोही राज्य राजस्थान में जनवरी, 1950 में मिला दिया गया।

हाड़ौती के चौहान: हाड़ौती में वर्तमान बूंदी, कोटा, झालावाड एवं बांरा के क्षेत्र आते है। इस क्षेत्र में महाभारत के समय से मत्स्य (मीणा) जाति निवास करती थी। मध्यकाल में यहा मीणा जाति का ही राज्य स्थापित हो गया था। पूर्व में यह सम्पूर्ण क्षेत्र केवल बूंदी में ही आता था। 1342 ई. में यहा हाड़ा चौहान देवा ने मीणों को पराजित कर यहा चौहान वंश का शासन स्थापित किया। देवा नाडोल के चौहानों को ही वंशज था। बूंदी का यह नाम वहा के शासक बूंदा मीणा के पर पड़ा मेवाड़ नरेश क्षेत्रसिंह ने आक्रमण कर बूंदी को अपने अधीन कर लिया। तब से बूंदी का शासन मेवाड़ के अधीन ही चल रहा था। 1569 ई. में यहा के शासक सुरजन सिंह ने अकबर से संधि कर मुगल आधीनता स्वीकार कर ली और तब से बूंदी मेवाड़ से मुक्त हो गया।

मुगल बादशाह फर्रूखशियार के समय बूंदी नरेश् बुद्धसिंह के जयपुर नरेश जयसिंह के खिलाफ अभियान पर न जाने के करण बूंदी राज्य का नाम फर्रूखाबाद रख उसे कोटा नेरश को दे दिया परंतु कुछ समय बाद बुद्धसिंह को बूंदी का राज्य वापस मिल गया। बाद में बूंदी के उत्तराधिकार के संबंध में बार-बार युद्ध होते रहे, जिनमें में मराठै, जयपुर नरेश सवाई जयसिंह एवं कोटा की दखलंदाजी रही। राजस्थान में मराठो का सर्वप्रथम प्रवेश बूंदी में हुआ, जब 1734ई. में यहा बुद्धसिंह की कछवाही रानी आनन्द (अमर) कुवरी ने अपने पुत्र उम्मेदसिंह के पक्ष में मराठा सरदार होल्कर व राणोजी को आमंत्रित किया। 1818ई. में बूंदी के शासक विष्णुसिंह ने मराठों से सुरक्षा हेतु ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली और बूंदी की सुरक्षा का भार अंग्रेजी सेना पर हो गया। देश की स्वाधीनता के बाद बूंदी का राजस्थान संघ मे विलय हो गया।

अब संबंधित प्रश्नों का अभ्यास करें और देखें कि आपने क्या सीखा?

चौहान वंश से संबंधित प्रश्न उत्तर 🔗

यह भी पढ़ें:

चौहान वंश का इतिहास प्रश्नोत्तर (FAQs):

तराइन का द्वितीय युद्ध वर्ष 1192 ई. में पृथ्वीराज चौहान और शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी के मध्य लड़ा गया। तराइन के इस युद्ध को 'भारतीय इतिहास' का एक विशेष मोड़ माना जाता है। इस युद्ध में मुस्लिमों की विजय और राजपूतों की पराजय हुई।

तराई के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गोरी से हार गये। मुहम्मद गोरी एक तुर्की आक्रमणकारी शासक था और वह दिल्ली सल्तनत की स्थापना के लिए भारत आया था।

तराइन की पहली लड़ाई 1191 में लड़ी गई थी। तराइन की पहली लड़ाई में चौहान राजा पृथ्वीराज चौहान ने गौरी राजा मुहम्मद गोरी को हराया था।

तराइन की दूसरी लड़ाई (1192 ई.) में मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराया।

तराइन की लड़ाई या तरावड़ी की लड़ाई लड़ाइयों की एक श्रृंखला थी (1191 और 1192) जिसने पूरे उत्तरी भारत को मुस्लिम नियंत्रण के लिए खोल दिया। ये युद्ध मुहम्मद गोरी और अजमेर और दिल्ली के चौहान (चाहमान) राजपूत शासक पृथ्वी राज तृतीय के बीच हुए।

  Last update :  Tue 13 Sep 2022
  Download :  PDF
  Post Views :  30003